- Class-4
Introduction to Planets, ग्रह परिचय
शुभ-पापी ग्रह
चन्द्रमा, बुध, शुक्र और गुरु ये क्रम से अधिकाधिक शुभ माने गये हैं, अर्थात् चन्द्रमा से बुध, बुध से शुक्र और शुक्र से गुरु अधिक शुभ हैं | सूर्य, मंगल, शनि व राहु ये क्रम से अधिकाधिक पापी ग्रह कहे गये हैं, अर्थात् सूर्य से मंगल, मंगल से शनि और शनि से राहु अधिक पापी गृह हैं |
उच्च-नीच ग्रह
गृह | उच्च राशि | उच्चंश | गृह | नीच राशि | नीचन्श |
सूर्य | मेष | 10 | सूर्य | तुला | 10 |
चंद्रमा | वृष | 3 | चंद्रमा | वृश्चिक | 3 |
मंगल | मकर | 28 | मंगल | कर्क | 28 |
बुध | कन्या | 15 | बुध | मीन | 15 |
ब्रहस्पति | कर्क | 5 | ब्रहस्पति | मकर | 5 |
शुक्र | मीन | 27 | शुक्र | कन्या | 27 |
शनि | तुला | 20 | शनि | मेष | 20 |
राहू | मिथुन | 15 | राहू | धनु | 15 |
केतू | धनु | 15 | केतू | मिथुन | 15 |
ग्रहों के उच्च-नीच बोध से कुण्डली का फलादेश स्पष्ट रूप से किया जा सकता है। उच्च का ग्रह शुभ फल करता है |
ग्रहों की मैत्री-शत्रुता
ग्रहों में पांच प्रकार की मित्रता-शत्रुता मानी गई है, अधिमित्र, मित्र, सम, शत्रु और अधिशत्रु। कुण्डली में ग्रह मित्र के गृह में स्थित हो तो शुभ और शत्रुके गृह में हो तो अशुभ फल देता है|
ग्रहों की मैत्री आदि तालिका (नैसर्गिक मैत्री)
गृह | मित्र | सम | शत्रु |
सूर्य | चंद्रमा , मंगल, ब्रहस्पति | बुध | शुक्र, शनि, राहू |
चंद्रमा | सूर्य , बुध | शुक्र, शनि ,मंगल, ब्रहस्पति | राहू, केतू |
मंगल | सूर्य , चंद्रमा, ब्रहस्पति | बुध ,राहू, केतू | शुक्र, शनि |
बुध | सूर्य , शुक्र, राहू | मंगल, शनि, केतू | चंद्रमा , ब्रहस्पति |
ब्रहस्पति | सूर्य , चंद्रमा , मंगल | राहू, केतू, शनि | बुध, शुक्र |
शुक्र | बुध , शनि , राहू | मंगल, ब्रहस्पति, केतू | सूर्य , चंद्रमा |
शनि | बुध, शुक्र, राहू | ब्रहस्पति, केतू | सूर्य , चंद्रमा, मंगल |
राहू | बुध, शुक्र, शनि | ब्रहस्पति, केतू | सूर्य , चंद्रमा, मंगल |
केतू | बुध, शुक्र, शनि | ब्रहस्पति, राहू | सूर्य , चंद्रमा, मंगल |
तात्कालिक मैत्री
निसर्ग मैत्री के अलावा तात्कालिक मैत्री का भी विचार करना पड़ता है। दोनों मित्रामित्रता (नैसर्गिक और तात्कालिक) के आधार पर पंचधा मैत्री चक्र बनता है | इसके द्वारा ही ग्रहों के पांच प्रकार- अधिमित्र, मित्र, सम, शत्रु या अधिशत्रु के सम्बन्ध बनते हैं |
प्रत्येक ग्रह अपने से दूसरे, तीसरे, चौथे, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें भाव में बैठे ग्रह का तात्कालिक मित्र होता है।
प्रत्येक ग्रह अपने साथ वाले पांचवें, छठे, सातवें, आठवें और नवें भाव में बैठे ग्रह का तात्कालिक शत्रु होता है|
नैसर्गिक और तात्कालिक मित्रामित्रता का समन्वय करके पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है।
ग्रहों का अंग-विन्यास
जिस प्रकार द्वादश राशियां काल-पुरुष का अंग मानी गई हैं अर्थात् काल पुरुष के देह में राशियों का विन्यास किया गया है, वैसे ही ग्रहों का विन्यास भी किया जाता है | प्रश्नकाल, गोचर अथवा जन्म-समय में जब ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह काल-पुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण पीड़ा पहुंचाता है |
काल पुरुष के सिर और मुख पर ग्रहपति व सूर्य का, हृदय और कंठ पर चन्द्रमा का, पेट और पीठ पर मंगल का, हाथों और पांवों पर बुध का, बस्ति पर गुरु का, गुहा स्थान पर शुक्र का तथा जांघों पर शनि का अधिकार होता है|
आत्मादि
काल पुरुष की आत्मा सूर्य और मन चन्द्रमा है। मंगल बल है तो बुध वाणी |बृहस्पति सुख और ज्ञान है। शुक्र कामवासना है तो शनि दुःख है| ज्योतिष में सूर्य चन्द्र को राजा, गुरु-शुक्र को HS, मंगल को सेनापति, बुध को युवराज, और शनि को भृत्य कहा है।
वर्ण (रंग)
सूर्य लाल-श्याम मिले-जुले रंगों का, चन्द्रमा सफेद वर्ण का, मंगल लाल वर्ण का, बुध दूब की भांति हरे रंग का, बृहस्पति गौर-पीत रंग का, शुक्र श्वेत रंग का, शनि काले रंग का, राहु नीले रंग का तथा केतु विचित्र वर्ण का है।
उपरोक्त कथन जातक के आत्मा व मन आदि के बारे में पता देता है | इनकेकारक बलवान होंगे तो ये भी पुष्ट होंगे और यदि कारक निर्बल अवस्था में होंगे तो ये भी निर्बल होंगे | वर्ण प्रश्न में नष्ट द्रव्यादि, चोर का रंग-रूप आदि तथा कुण्डली में जातक के रंग-रूप आदि का पता ग्रह के वर्ण से चलता है|ग्रहों की दिशा सूर्य पूर्व दिशा का, शनि पश्चिम का, बुध उत्तर का, मंगल दक्षिण का, शुक्र अग्नि कोण का, राहु केतु नैरत्या का, चन्द्रमा वायव्य का और गुरु ईशान दिशा का स्वामी है।
ग्रहों की बालादि अवस्था
ग्रहों के अंश एवं राशि के अनुसार इस प्रकार अवस्थाएं बनती हैं |
विषम राशियों संम राशियाँ
मेष ,मिथुन, सिंह वृष, कर्क, कन्या
तुला , धनु , कुम्भ वृश्चिक , मकर , मीन
1,3,5,7,9,11 2,4,6,8,10,12
अंशो के हिसाब से ग्रहो की स्थिति
अंश | अवस्था | अंश |
0-6 | बाल | 24-30 |
6-12 | कुमार | 18-24 |
12-18 | युवा | 12-18 |
18-24 | व्रद्ध | 06-12 |
24-30 | मृतक | 0-6 |
ग्रहों की अवस्था
शास्त्रकारों ने ग्रहों की दस अवस्थाएं मानी हैं, परन्तु किसी-किसी आचार्य ने नौ अवस्थाएं भी मानी हैं | मूल त्रिकोण राशि में अपनी उच्च राशि में ग्रह प्रदीप्तावस्था में होता है। अपने ग्रह में (स्वगृही) हो तो स्वस्थ, मित्र के गृह में हो तो मुदित, शुभ ग्रह के वर्ग में हो तो शान्त, दीप्त किरणों से युक्त हो तो शकक्त, ग्रहों से युद्ध में पराजित हो तो पीड़ित, शत्रुक्षेत्रीय (शत्रु राशि में) हो तो दीन, पाप ग्रह के वर्ण में हो तो खल, अपनी नीच राशि में हो तो भीत और अस्त ग्रह को विकल कहा जाता है|अपने मित्र ग्रहों की राशि में स्थित ग्रहों की संज्ञा ‘्बाल’ होती है | मूलब्रिकोण में स्थित ग्रह की संज्ञा’कुमार’ है। ग्रह के अपनी उच्च राशि में स्थित होने से उसकी ‘युवराज’ संज्ञा होती है और शत्रु की राशि में स्थित होने से ग्रहों की संज्ञा व्रद्ध मानी गई है।
ग्रह अपनी अवस्था के अनुसार ही फल प्रदान करते © | ‘बालक’ संज्ञा वाला ग्रह सुख देता है। ‘कुमार’ हो तो अच्छा आचरण प्रदान करता है | यौवनावस्था में राज्याधिकार दिलाता है और वृद्धावस्था में हो तो ऋण या रोग आदि देता है।
ग्रहों के सम्बन्ध
ग्रहों के चार प्रकार के सम्बन्ध माने हैं । किसी-किसी आचार्य ने पांच प्रकार के सम्बन्ध भी कहे हैं |
1. दो ग्रहों में परस्पर राशि परिवर्तन का योग हो, अर्थात् ‘A’ ग्रह ‘B’ ग्रह की राशि में बैठा हो और B ग्रह *A’ ग्रह की राशि में बैठा हो तो यह अति उत्तम सम्बन्ध होता है |
2. जब दो ग्रह परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हों अर्थात् ‘A’ ग्रह *B’ ग्रह हो देख रहा हो और “B’ ग्रह “A’ ग्रह को देख रहा हो तो यह मध्यम सम्बन्ध माना जाता है।
3. दोनों ग्रहों में से एक ग्रह दूसरे की राशि में बैठा हो और दोनों में से एक-दूसरे ग्रह को देखता हो तो यह तीसरा सम्बन्ध माना जाता है।
4. दोनों ग्रह एक ही राशि में संयुक्त होकर बैठे हों तो यह चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है और अधम कहा गया है।
5. जब दो ग्रह एक-दूसरे से त्रिकोण (पांचवें-नवें) स्थान पर स्थित हों तो यह मतान्तर से पांचवां सम्बन्ध होता है।
ग्रहों की दृष्टि
सभी ग्रह अपने स्थान से सातवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं लेकिन मंगल अपने स्थान से चौथे और आठवें स्थान को, गुरु अपने स्थान से पांचवें और नवे स्थान को व शनि अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है।
कुछ प्राचीन आचार्यों ने राह केतु की दृष्टि को भी मान्यता दी है, लेकिन महर्षि पराशर ने इनकी कोई दृष्टि नहीं मानी है | अन्य आचार्यों के मत से राहू अपने स्थान से सातवें, पांचवें और नवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है | ऐसे ही केतु की भी दृष्टि होती है|
प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को एक पाद दृष्टि से,पांचवें और नवें को दो पाद दृष्टि से तथा चौथे और आठवें स्थान को तीन पाद दृष्टि से देखता है।
सूर्य और मंगल की ऊर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चन्द्रमा और गुरु की बराबर (सम) तथा राहु और शनि की नीची दृष्टि है|
भावों के स्थिर कारक ग्रह
सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का, चंद्रमा सुख भाव का, मंगल सहज और शत्रु भाव का, बुध सुख और कर्म भाव का, गुरु धन, पुत्र, धर्म, कर्म और आय भाव का, शुक्र स्त्री भाव का, शनि शत्रु, मृत्यु, कर्म और व्यय भाव का कारक ग्रह है|
आत्मादि चर कारक
सूर्यादि नौ ग्रहों में जो ग्रह स्पष्ट तुल्य अंशों में अधिक हो, अर्थात् अधिक अंश वाला हो, वह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह अमात्यकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह भ्रातृकारक, उससे कम अंशों वाला मातृकारक, उससे कम अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला जातिकारक तथा उससे कम अंशों वाला स्त्रीकारक कहा गया है।
ग्रहों के लोक
पूर्व में जातक किस लोक में था और मृत्यु के पश्चात् कहां जायेगा आदि विचार के लिए ग्रहों के लोक का उपयोग होता है| स्वर्ग का अधिपति गुरु, पितुलोक के शुक्र और चन्द्रमा, पाताललोक का बुध, मृत्युलोक के मंगल और सूर्य तथा नरक का अधिपति शनि होता है |
ग्रह मैत्री
ग्रहों के बलाबल का निर्णय करने के लिए पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है। पंचधा मैत्री का आधार है निसर्ग मैत्री एवं तात्कालिक मैत्री । तात्कालिक मैत्री जन्मकुण्डली के आधार पर तय की जाती है | ग्रहों की पांच प्रकार की स्थितिको बतलाने वाला चक्र पंचधा मैत्री चक्र कहलाता है | अतिमित्र-मित्र-सम-शत्रु एवं अतिशत्रु। नीचे मैत्री चक्र दिया जा रहा है।
तात्कालिक मैत्री:– ग्रह अपने स्थान्न से दूसरे, तीसरे, चौथे, दशबवें, ग्यारहवें एवं बारहवें स्थान में स्थित ग्रह को अपना तात्कालिक मित्र समझता है तथा स्थानगत ग्रह को शत्रु |निसर्ग मैत्री और तात्कालिक मैत्री के आधार पर पंचधा मैत्री चक्र बनाया जाता है| पंचधा मैत्री चक्र में पांच प्रकार की स्थितियां होती हैं अतिमित्र, मित्र, सम,शत्रु, अतिशत्रु। जब कोई ग्रह निसर्ग मैत्री में भी मित्र और तात्कालिक स्थिति में भी मित्र हो तो पंचधा मैत्री में वह अतिमित्र होता है। निसर्ग मैत्री में सम और तात्कालिक मैत्री में शत्रु हो तो शत्रु माना जाता है। निसर्ग मैत्री में शत्रु हो तथा तात्कालिक स्थिति में भी शत्रु हो तो अतिशत्रु माना जाता है।
पंचधा मैत्री के आधार पर ग्रहों का सप्त वर्गी बल साधन किया जाता है। पंचघा मैत्री के अनुसार अतिमित्र के ग्रह में ग्रह का बल 22 कला30 विकला होगा | मित्र के घर में 15 कला बल सम के स्थान में 7 कला 30 विकला, शत्रु के स्थान में 3 कला 45 विकला अतिशत्रु के स्थान में 1 कला 52 विकला बल,अपने ही भाव में 30 कला बल, मूल त्रिकोण राशि में 45 कला बल और उच्चराशि में 60 कला बल मिलता है।